रवि प्रकाश, बीबीसी हिंदी के लिए
राँची-मुंबई की उस फ्लाइट में मैं बिल्कुल अकेला था. एयरलाइंस वालों ने मुझे आगे की सीट दी. यह भी ख़्याल रखा कि मेरे बगल की दोनों सीटें खाली रहें ताकि मुझे किसी तरह का इन्फेक्शन नहीं हो.
हम उड़े तो नीचे खूबसूरत शहर राँची था. हरी-भरी वादियाँ, ऊँची इमारतों और खपरैल छतों का कोलाज, सड़कों पर चलती कारें और मेरे शहर के लोग मेरी आँखों की पुतलियों में आ बसे. फिर वे धीरे-धीरे ओझल होते चले गए. मानो ये सब रेत हों, जिन्हें सहेज पाना मेरी मुट्ठियों के वश में नहीं. सब छूट रहा था. फिसलता-सा लग रहा था. जैसे ये सब दोबारा देखना शायद नसीब न हो.
मेरी आँखों में खारे पानी की बूंदें थीं. वे मेरे गालों के रास्ते विमान के फ़र्श तक गिरना चाहती थीं ताकि आँसुओं का वजूद कायम रहे. लेकिन वक्त कभी-कभी बदनसीब बना देता है. हँसना छोड़िए, रोना भी नसीब नहीं होता. मैं रोना चाहता था लेकिन रो नहीं सका. जहाज में कई और लोग थे.
मैंने अपना लगेज एयरलाइंस वालों को सौंप दिया था. उसमें कुछ कपड़ों और ज़रूरत की दूसरी चीजों के साथ काली-सफेद फ़िल्मों वाली कुछ शीट्स थीं. उन पर मेरे फेफड़ों की कई तस्वीरें उकेरी गई थीं. उन तस्वीरों में कैंसर भी दिखा था, जो सीटी स्कैन (कंप्यूटराइज़ टोमोग्राफी) के दौरान कैद कर लिया गया था. मानो वो कोई एलियन था, जो न चाहते हुए भी कैमरे की जद में आ गया था. मेरा वह सूटकेस जहाज़ के लगेज बॉक्स में था.
मेरे फेफड़ों में कैंसर भी था लेकिन एयरलाइंस वालों ने उसके लिए अलग से कोई सीट नहीं दी थी क्योंकि कैंसर हमारे साथ मुफ़्त में यात्रा करता है. वह तारीख थी, एक फ़रवरी, 2021.
मुझे कैंसर है, यह सिर्फ़ दो दिन पहले पता चला था. तीस जनवरी को ही मैंने सीटी स्कैन की वह समरी रिपोर्ट पढ़ी थी, ढेर सारे वैज्ञानिक शब्दों के साथ ये भी लिखा था, ‘लंग कैंसर के अंतिम स्टेज का मरीज़ रवि प्रकाश.’
मैंने हाल ही में अपना 45 वाँ जन्मदिन मनाया था. इससे तीन महीने पहले अक्टूबर 2020 में मैंने अपने इकलौते बेटे का एडमिशन आइआइटी, दिल्ली में कराया था. बीटेक की उसकी पढ़ाई अभी कायदे से शुरू भी नहीं हो सकी थी. कोविड-19 का दौर था. पढ़ाई ऑनलाइन चल रही थी इसलिए वो राँची में हमारे साथ ही रह रहा था. हम सब खुश थे. बहुत खुश.
नवंबर में छठ की पूजा थी. इसके लिए हम कार से राँची से मोतिहारी गए. तब थोड़ी भी भनक नहीं थी कि वह हमारी अंतिम लांग ड्राइव बन जाएगी. मेरी सेहत अब मुझे लंबी ड्राइव की अनुमति नहीं देती. वह सिलसिला रुक चुका है.
छठ के बाद वापस राँची लौटा, तो कैंसर के लक्षण आने लगे. हल्की खांसी से शुरू हुआ सिलसिला थकान, बदन दर्द तक पहुँचा. फिर डॉक्टरों के चक्कर लगने लगे. कई दवाइयाँ और दर्जनों तरह की जाँच के बाद अंततः पता चला कि मुझे लंग कैंसर है. मैं सिगरेट नहीं पीता था और तब तक यही जानता था कि लंग कैंसर स्मोकर्स को होता है. मेरी वह धारणा एक झटके में टूट गई.
राँची के मेरे पल्मोनोलाजिस्ट डॉक्टर निशिथ कुमार की बात कानों में गूंजने लगी–अब आपके लिए कठिन वक्त की शुरुआत होने वाली है. आपका कैंसर शायद चौथे स्टेज में हैं.
यह झटका कैंसर ने चुपके से दिया था. वो कब आकर मेरे शरीर में बैठा और कैसे स्टेज-4 तक पहुँचा, यह मेरे लिए अब तक रहस्य बन हुआ है. हाँ, तीन महीने पहले एक बार मेरी थूक में ख़ून का हल्का अंश दिखा था. शायद कैंसर ने उस बहाने दरवाज़े पर दस्तक दी थी, जिसे मैं तब नहीं समझ सका.
एक फ़रवरी 2021 की देर शाम मुंबई एयरपोर्ट पर मेरे प्लेन की लैंडिंग के थोड़ी ही देर बाद पटना से आ रहे मेरे डॉक्टर पुष्पराज की फ्लाइट भी लैंड कर गई, वे मेरी पत्नी के भाई हैं. हम छत्रपति शिवाजी महाराज अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का टर्मिनल-2 पर मिले. साथ ही गेस्टहाउस गए. अगली सुबह 9 बजे टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल (टीएमएच) के होमी जहांगीर भाभा बिल्डिंग के रजिस्ट्रेशन काउंटर पर मेरी तस्वीर ली गई. फिर एक कार्ड बना. उस पर एक नंबर था. वह नंबर मेरे मरीज़ होने की पहचान बना.
राँची से अकेला मुंबई के लिए निकला मैं अब सैकड़ों कैंसर मरीज़ों के बीच था. वहाँ मेरी तरह के सैकड़ों लोग थे. अजीब नज़ारा. किसी का मुँह कटा, किसी का हाथ, तो किसी के पैर ही कटे हुए. कोई व्हील चेयर पर, तो कोई स्ट्रेचर पर. इस बीच कुछ लोग कैंटीन में खाते दिखे. कुछ रोते हुए लोग. कोई फोन पर पैसे की व्यवस्था में लगा हुआ, तो कोई एटीएम की लाइन में.
ज़िंदगी ऐसी भी हो सकती है, यह मेरा पहला अनुभव था.
मुझे वहाँ की डाक्टर देवयानी ने देखा. उन्होंने कुछ और जांच कराई. समझाया कि मेरा कैंसर किस स्टेज में है और इसका क्या मतलब है. यह भी बताया कि शायद यह कभी ठीक नहीं हो. अंतिम साँस तक मुझे कैंसर के साथ ही रहना पड़े.
टीएमएच के वरिष्ठ डाक्टर पंकज चतुर्वेदी की पहल पर मुझे उसी दिन एडमिट कर लिया गया. मेरी छाती में जमा पानी निकालने के लिए छोटा ऑपरेशन (टैपिंग) हुआ. वहाँ पाइप लगा दिया गया, जिसका एक सिरा प्लास्टिक की एक छोटी थैली में लगा था. वह पानी रिस-रिस कर लगातार उस थैली में आता रहा. सुबह अपने बहनोई चंद्रभूषण की कार से अस्पताल गया मैं अब व्हील चेयर पर था. मेरे हाथों में वो थैली थी. छाती पर पट्टी. मुझे कभी एक्स-रे, तो कभी कैजुअलिटी में ले जाया गया. देर रात जनरल वार्ड में एक बेड मिली. अगले दिन मुझे सेमी प्राईवेट वार्ड में शिफ्ट किया गया.
फिर सुबह-शाम की नियमित जाँचों के बाद मेरी बायोप्सी कराई गई. पैट स्कैन हुआ. बायोमार्कर टेस्ट कराया गया. कीमोथेरेपी हुई. फिर वो तारीख आई, जब मेरा मेडिकल प्रोटोकाल तय किया गया.
मैं टीएमएच में मेडिकल ऑन्कोलोजी के प्रोफ़ेसर और विभागाध्यक्ष (एचओडी) डॉक्टर कुमार प्रभाष के कमरे में था. मुझे बताया गया कि मेरी सारी रिपोर्टें आ चुकी हैं. यह कन्फ़र्म हो गया है कि मुझे फोर्थ स्टेज का लंग कैंसर है. मैं इजीएफआर म्यूटेड हूँ और मेरा कैंसर मेटास्टैसिस अर्थात फैला हुआ है. मैं कई सवाल पूछ रहा था. वहाँ मौजूद डॉ सुनील बारी-बारी से मेरे सवालों के जवाब देते रहे.
उन्होंने एक सवाल के जवाब में बताया कि शायद मेरे पास ज़िंदगी के 18 महीने ही बचे हैं. मेरे मेडिकल प्रोटोकोल का यही मिडियन टाइम था. मुझे बताया गया कि मेरे इलाज का उद्देश्य क्योरेटिव न होकर पैलियेटिव है. मतलब मेरा कैंसर कभी ठीक नहीं होगा. मेरी बाकी बची ज़िंदगी कैंसर के साथ ही कटेगी.
मुझे लगा कि मौत मेरी आँखों में आँखें डाल कर बात करना चाहती है. फिर इस बात का इत्मीनान भी था कि चलो 18 महीने तो ज़िंदा रह सकता हूँ मैं. इतने वक्त में तो बहुत काम कर लेंगे. बाकी बची कई ज़िम्मेदारियां पूरी कर लेंगे. मैं तबसे वही कर रहा हूं.
अब उस बातचीत के 2 साल से अधिक हो चुके हैं. मैं 35 बार अपनी कीमोथेरेपी करा चुका हूँ. टार्गेटेड थेरेपी की करीब 700 गोलियाँ खा चुका हूँ. इस बीच मौत के नाम एक चिट्ठी लिखी. एक खुला ख़त कैंसर के नाम भी लिखा. कैंसर और मैंने साथ रहना सीख लिया है.
इस बीच हमने मुंबई की अनगिनत यात्राएँ कीं. अस्पताल का फॉलोअप किया. गोवा गए. कश्मीर घूमा. इलाज भी कराते रहे. दवाइयाँ खाते रहे. देश घूमते रहे. यह क्रम अभी जारी है. हम अपनी अगली यात्रा की योजनाएँ बन रहे हैं. 20 मार्च को फिर मुंबई जाना है. अगले ओपीडी के लिए. उससे पहले 36वीं कीमोथेरेपी भी करानी है. अगर साइड इफेक्ट्स अधिक हुए तो उऩका भी इलाज कराना है. यह सब करते हुए ज़िंदगी की किताब में कुछ नए पन्ने जोड़ने हैं. नई कहानियां लिखनी है. पुरानी कहानियों को दोबारा पढ़ना-सुनाना है. कुछ हसीन शामें चुरानी हैं. कैंसर को कहा है कि वो थोड़ा आराम कर ले.
दरअसल, मेरे मेडिकल प्रोटोकोल में कीमोथेरेपी और टार्गेटेड थेरेपी दोनों की जाती है. इसके लिए मुझे हर तीन महीने पर मुंबई जाना होता है ताकि अगले तीन महीने की दवा तय की जा सके. इस दौरान स्कैन और ओपीडी की तारीखों के बीच कुछ खाली तारीखें भी होती हैं. इनका उपयोग हम ज़िंदगी को नए तरीके से जीने के लिए करते हैं. हमने शिर्डी, गोवा, गुलमर्ग, सोनमर्ग, श्रीनगर की यात्राएँ की हैं.
मुंबई में अस्पताल में दिन गुज़ारने के बाद सीधे समंदर का रुख किया है. मरीन ड्राइव पर हँसते और रोते हुए अपनी शामें गुज़ारी हैं. चौपाटी पर खोमचे वालों के गोलगप्पे खाए हैं. पावभाजी और भुट्टे भी. जुहू बीच पर डूबते सूरज को देखा है. देर शाम होटल लौटकर इत्मीनान की नींद ली है.
दो-दो बार गोवा गए, तो सुबह टहलने से लेकर देर रात तक डिस्कोज में पैर भी थिरकाए हैं. कश्मीर के सोनमर्ग में ग्लेशियर देखा. घुड़सवारी की, तो गुलमर्ग में गोंडोला (केबल कार) से पहाड़ के ऊपर तक गए. ज़िंदगी को कसके गले लगाया, आइ लव यू कहा और कैंसर को थैंक्यू. थैंक्यू इसलिए, क्योंकि कैंसर ने हमें यह मौका दिया.
मुंबई की एक यात्रा में मेरे बेटे प्रतीक ने कहा कि काश ये पल यहीं रुक जाता. काश सब ठहर जाता. काश ये यादें और खूबसूरत होती चली जातीं. काश, ये कैंसर गायब हो जाता. काश.
मैंने इन हसीन लम्हों के दौरान भी अपनी पत्नी संगीता की आँखों से बहते आँसू देखे हैं. उनकी आवाज़ लड़खड़ाते देखी है. अपने बेटे को आँसुओं पर काबू करते देखा है. हम न जाने कितनी बार रोये हैं. लेकिन अगले ही पल इन आँसुओं को पोंछकर फिर से आइसक्रीम खाई है. अगले दिन की योजनाएँ बनाई हैं क्योंकि हम यह ज़िंदगी जाया करना नहीं चाहते. इसे जीना चाहते हैं. मुस्कुराकर.
मैं जानता हूँ कि मेरा ट्रीटमेंट पैलियेटिव है. मेरे जैसे मेडिकल प्रोटोकोल के मरीज़ों के आधार पर बनी सांख्यिकी भी कहती है कि मेरे पास ज़िंदगी के कुछ ही दिन या साल बचे हैं. फिर भी मैं जीना चाहता हूँ. मैं चाहता हूँ कि जून 2024 में जब मेरा बेटा आइआइटी से पासआउट होकर निकले, तो मैं उस वक्त की गवाही दे सकूँ. मेरी साँसें चल रही हों. मैं थिरक सकूँ. मिठाई खा-खिला सकूँ इसलिए मौत को चिट्ठी लिखकर उससे थोड़ा आराम से आने की गुजारिश की थी. शायद मौत मेरी गुज़ारिशों पर अमल करे. आए, लेकिन थोड़ा आराम से. जून 2024 के बाद. इसलिए मैं जीना चाहता हूँ.
मैं मौत भी शांति वाली चाहता हूं. मैं वेंटिलेटर पर मरना नहीं चाहता. मैं सबके सामने इस दुनिया से जाना चाहता हूँ इसलिए मैंने राँची के मेडिका अस्पताल के अपने मेडिकल डॉक्टर गुंजेश कुमार सिंह से गुज़ारिश की है कि जब भी मैं बीमार होकर अचेतावस्था में उनके पास लाया जाऊँ तो वो मुझे तभी आइसीयू में ले जाएँ, जब उन्हें सर्वाइवल का चांस दिख रहा हो.
मैंने उनसे कहा है कि अगर मेरी रिपोर्टें ठीक नहीं लगें और आप समझ जाएँ कि मौत करीब है, तो मुझे वार्ड में मेरी पत्नी, बेटे और दोस्तों के साथ रहने दें, ताकि मैं सबको देखता हुआ अलविदा बोल सकूँ. मैं मरते वक्त के एकांत नहीं चाहता. डॉक्टर गुंजेश ने मुझसे यह वादा किया है कि वे मेरी बात मानेंगे.
मुंबई में इलाज के शुरुआती दिनों में मैंने यूट्यूब पर एक वीडियो अपलोड किया. 14 फरवरी 2021 को. वैलेंटाइन डे पर मैंने कैंसर से कहा कि तुम बिन बुलाए आए. एकतरफा प्यार में. लेकिन, अब आ गए हो तो साथ रहकर देखो. प्रेमी-प्रेमिका की तरह. शायद तुम्हें ठीक लगे. हाँ, मैं तुम्हें पलट कर प्यार नहीं कर सकता. क्योंकि तुम्हारे एकतरफा प्यार में मेरा बहुत कुछ लुट चुका है. अब मैं बेटे और पत्नी की क़ीमत पर तुमसे प्यार नही कर सकता. तुमसे अदावत भी नहीं है, क्योंकि हमें बाकी बची ज़िंदगी साथ रहना है.
इसलिए मैं कैंसर से दूसरी तरह का प्यार करना चाहता हूँ. मैं 70 के दशक की चर्चित हिन्दी फ़िल्म ‘आनंद’ से आगे की कहानी लिखना चाहता हूँ. मैं कैंसर के साथ रहते हुए उसकी चुनौतियों का सामना करते हुए उसके समाधान के तरीके खोजने में लगा हूँ ताकि कैंसर के दूसरे मरीज़ों के लिए छोटा ही सही लेकिन एक फॉर्मूला तो बना ही सकूँ. उनकी ज़िंदगी थोड़ी आसान कर सकूँ. उनसे बातें कर सकूँ. उनकी आवाज़ उठा सकूँ. उनकी आवाज़ बन सकूँ.
कैंसर के इलाज की सबसे बड़ी चुनौती उसकी दवाइयों की क़ीमत है. मैं अभी जिस मेडिकल प्रोटोकोल पर हूँ, उससे बेहतर थेरेपी भी भारत में मौजूद है. मेरा प्रोटोकोल तय करते वक्त डॉक्टर ने मुझे उस दवा के बारे में बताया, लेकिन उसके 30 टैबलेट की क़ीमत पाँच लाख रुपये थी. एक महीने की दवा खरीदने पर दो महीने की मुफ़्त में मिल रही थी. मतलब पाँच लाख रुपये में तीन महीने की टार्गेटेड थेरेपी.
साल का खर्च 20 लाख रुपए. मैंने वह दवा नहीं ली, क्योंकि मेरी आर्थिक हैसियत उस दवा को खरीद पाने लायक नहीं थी. मैं उससे कम क़ीमत वाले प्रोटोकोल पर गया. इस कारण मुझे हर 21 वें दिन कीमोथेरेपी करानी पड़ती है. इसके साथ टार्गेटेड थेरेपी की जो दवा मैं खाता हूँ, उसके काफ़ी साइड इफेक्ट हैं. इस कारण हर 12 दिन के चक्र में औसतन 7 दिन मैं ज़्यादा बीमार रहता हूँ.
ऐसा सभी मरीज़ों के साथ होता है. किसी-किसी प्रोटोकाल में 21 दिनों के अंतराल पर होने वाली इम्यूनोथेरेपी की क़ीमत सवा दो लाख रुपए है. मतलब, पूरे साल में कोई प्रोटोकाल 5 लाख रुपये लेता है, तो कोई 50 लाख. ऐसे में दुनिया के दूसर देशों के मुकाबले दवाओं को अफोर्ड करने के मामले में भारत के लोग काफ़ी पीछे हैं.
हमारे जैसे मरीज़ बेहतर दवा होने के बावजूद कम बेहतर दवा का चुनाव इसलिए करते हैं क्योंकि वही उनके बजट में है. इस वजह से कैंसर से होने वाली मौत के आंकड़े भारत में भयावह हैं. अव्वल तो यह कि कैंसर के सारे मामले सरकार की जानकारी में ही नहीं आते, क्योंकि भारत में यह नोटिफ़ाइड बीमारियों की श्रेणी में नहीं है.
कैंसर का हर मरीज़ अपनी कहानी का हीरो है क्योंकि वह लड़ता है. इसमें जीत ही हो, यह ज़रूरी नहीं. वह हारकर भी नहीं हारता, क्योंकि उसने अपनी लड़ाई लड़ी. न केवल बीमारी से बल्कि इस सिस्टम और समाज से भी. ऐसे में समाज के पास एक बड़ा मौका है कि वह हीरोइज़्म दिखाए. सुपरहीरो बने. समाज ऐसा करता भी है, लेकिन कम ही होता है. इसको बढ़ाए जाने की ज़रुरत है.
टीएमएच में इलाज कराने के लिए जाते वक्त मैं वहाँ बाहर लगी उन गाड़ियों को रोज़ देखता हूँ, जिनमें लोग खाने के पैकेट भरकर लाते हैं. लोगों को खिलाते हैं और फिर ये गाड़ियां चली जाती हैं. ये उन सामाजिक संस्थाओं की गाड़ियां हैं, जो कैंसर के मरीज़ और उनके परिजनों को मुफ्त भोजन कराती हैं. कोई जूस के पैक बाँटता है, तो कोई पानी की बोतलें.
अस्पताल के साथ लगी गलियों में दर्जनों स्वयंसेवी संस्थाओं (एनजीओ) और ट्रस्टों के दफ़्तर हैं. यहाँ मौजूद लोग मरीज़ों और उनके परिजनों को सरकारी योजनाओं और ग़ैर-सरकारी संस्थाओं से आर्थिक मदद लेने के तरीके समझाते हैं.
ऐसी ही एक संस्था लंग कनेक्ट से जुड़े संजीव शर्मा बताते हैं कि बाहर से इलाज के लिए मुंबई आने वाले ज़्यादातर लोगों को रहने-खाने की सहूलियत दिला पाना भी बड़ा काम है. इसके बाद उनकी आर्थिक मदद के उपाय खोजे जाते हैं, ताकि हर मरीज़ को सहायता दिलायी जा सके. लेकिन, मरीज़ों की लगातार बढ़ती संख्या के मुकाबले ऐसे लोगों की संख्या काफ़ी कम है. ऐसे में लोगों को आगे आना पड़ेगा.
आंकड़ों की चुगली और भयावह हालात
भारत सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2020 में भारत में 13.92 लाख, 2021 में 14.26 लाख और 2022 में 14.61 लाख कैंसर के नए मरीज़ों की पहचान की गई. इसी दौरान 2020 में 7 लाख, 70 हज़ार 230, साल 2021 में 7 लाख, 89 हज़ार, 202 और 2022 में 8 लाख, 8 हज़ार, 202 कैंसर मरीज़ों की मौत भी हुई.
मतलब, पिछले तीन साल के दौरान भारत में कैंसर से कुल 23 लाख, 67 हज़ार 990 मरीज़ों की मौत हुई है. यह वो आंकड़ा है, जो सरकार तक नेशनल कैंसर रजिस्ट्री के ज़रिए पहुँच सका. विशेषज्ञों का मानना है कि वास्तविक आंकड़े इससे कहीं ज़्यादा हैं क्योंकि सुदूर गाँवों के ज़्यादातर मामले अस्पतालों तक पहुँच ही नहीं पाते.
कैंसर नोटिफाइड रोग नहीं है, तो मौत के आंकड़े भी सटीक नहीं कहे जा सकते. कई मामलों में कैंसर के मरीज़ों की मौत की वजह को कैंसर न बताकर कुछ और बताया जाता है. मैंने खुद ऐसे उदाहरण देखे हैं, जिनमें कैंसर मरीज़ की मौत की वजह कार्डियक अरेस्ट बता दिया गया था.
ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह कैंसर को महामारी घोषित कर उसे नोटिफ़ाइड बीमारी की श्रेणी में रखे ताकि कैंसर का हर केस रजिस्टर हो सके. साथ ही इन आंकड़ों के आधार पर नीतियाँ बनायी जाएँ या तो कैंसर के हर मरीज़ का मुफ्त इलाज हो, या फिर इसकी दवाइयों की कीमतें सरकार के नियंत्रण में हों.
अगर ऐसा नहीं हुआ, तो मेरी तरह कैंसर का हर मरीज़ अस्पताल की फाइलों का एक नंबर मात्र बनकर रह जाएगा.